How is human right a contemporary global concern ? Discuss. मानव अधिकार कैसे एक समकालीन वैश्विक सरोकार है ? चर्चा करें।
मानवाधिकार-वैश्विक सन्दर्भ में कर्तव्य
परिचय
बढ़ते प्रतिस्पर्धा में घटते मानव विचार
सूचना क्रांति के दौर में मानव जीवन
मानवाधिकार और प्रथम विश्व युद्ध
मानवाधिकार में व्यक्ति को प्राण, स्वतन्त्रता एवं दैहिक सुरक्षा का अधिकार
मानवाधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय दस्तावेजों में मिले अधिकार का वर्णन
परिचय
मानवाधिकार मूलतः मानव जाति को दिए या मिलने वाली अधिकारों से संबंधित है। प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में भी इनका प्रमाण मिलता है। अधिकार से उत्पन्न होने वाली कठिनाइयों का शास्त्रकारों ने पूर्वानुमान कर लिया था और इसी कारण उनहोंने त्याग, तपस्या, सहयोग, परोपकार जैसे सदगुणों के आधार पर अधिकार की अपेक्षा कर्तव्य को अति महत्वपूर्ण बताया। प्रत्येक व्यक्ति को सभी प्रकार के अधिकार देने के लिए अपने कर्तव्यों का उचित निर्वाह करना आवश्यक है। मानवीय संवेदना में आज निरंतर कमी आ रही है जिसे वैश्विक स्वीकृति को लुईस टेनकिन नामक विद्वान ने स्वीकार किया है। मानवाधिकारों का विकास और उसकी पृष्ठभूमि पर दृष्टिपात करने पर यह स्पष्ट होता है कि- ‘मानव अधिकार वे अधिकार हैं जो व्यक्ति को मानव होने के कारण प्राप्त हैं। इनका आधार मानव स्वभाव में ही निहित है।’
मानवाधिकारों के प्रति सम्मान का भाव विकसित करने के लिए वैश्विक स्तर पर कर्तव्यों की व्याख्या करते समय प्राचीन भारतीय सन्दर्भ सदैव प्रासंगिक रहे हैं। समता और स्वतंत्रता को कायम रखना कर्तव्य होना चाहिए तथा मानवाधिकारों के संरक्षण हेतु धर्माचरण भी कर्तव्य होना चाहिए। वर्तमान व भावी जीवन के कर्तव्यों को उचित रूप से समझने तथा पालन करने के लिए इनकी शिक्षा देनी जरुरी है। वैश्विक स्तर पर कर्तव्य बोध को जागृत करने के लिए व्यक्ति के अस्तित्व की गरिमा का बोध कराया जाना चाहिए। साथ है, समाज के सभी वर्गों का इव्कास जैसे कर्तव्य स्तर पर मानवाधिकारों की दशा बदलने में सक्षम हो सकते हिं। मानवाधिकारों के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए सभी राष्ट्र सामूहिक सत्य मार्ग पर चलते हुए सामजिक कल्याण के कर्मों मने लग जाएँ तो विश्व का संपूर्ण परिदृश्य ही बदल जाएगा और मानव की कल्पना साकार हो जाएगी।
बढ़ते प्रतिस्पर्धा में घटते मानव विचार
बढ़ती प्रतिस्पर्धा एवं भौतिकता के कारण मानव को मानव कम तथा अन्य कुछ अह्दिक समझे जाने से मर्माहत पशिचमी जगत में मानव को मिलने वाले अधिकारों के प्रति जो जागरूकता प्रदर्शित की जा रही है वह सर्वथा नवीन नहीं की जा सकती। मानवाधिकार तो मूलतः मानव जाती को मिले अथवा दिए जाने वाले अधिकारों से संबंधित है जिसकी जड़ें बेबीलोन, असीरिया और प्राचीन यूनान तक फैली रही हैं। भारत में प्राचीन काल से मानवाधिकारों को महत्व मिलता रहा है। प्राचीन भारतीय ग्रंथों में वर्णित तत्संबंधी विषय इसका प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। अधिकार के अहंकार से उत्पन्न होने वाले संकटों का पूर्वानुमान करके शास्त्रोंकारों ने विनम्रता, सेवा, त्याग, तपस्या, सहयोग परोपकार जैसे अनेक मानवीय सदगुणों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया और अधिकार के स्थान पर कर्तव्य को अधिक महत्व प्रदान किया।
वास्तव में अधिकारों का दूसरा पक्ष कर्तव्यों से संबंधित है। सभी को सभी का अधिकार देने के लिए अपने कर्तव्यों का सम्यक निर्वहन अत्यंत आवश्यक है। आज सभी को उनके आवश्यक अधिकार न मिल पाने के कारण कर्तव्यों के प्रति बरती गयी उदसीनता है। भारत का संविधान अधिकारों के साथ कर्तव्यों की सम्यक प्रस्तुति करता है जिसे व्यवहार में उतार लिया जाता तो अधिकारों की मानव क लिए उपलब्धता सुनिश्चित की जा सकेगी। अधिकारों की मांग के सामानांतर कर्तव्यों के प्रति तत्परता का प्रदर्शन आवश्यक है ताकि वंचितों को अभी उनके अधिकार मिल सकें।
विश्व स्तर पर कर्तव्यबोध को जाग्रत करने के लिए आवश्यकत है कि व्यक्ति अस्तित्व के प्रति गरिमा का बोध कराया जाए, सर्वे भवन्तु सुखिन की संस्कृति आत्मसात कराई जाए, मानवतावादी विचारों एवं मूल्यों के प्रति समझ विकसित की जाए और उन स्थलों या तत्वों को पहचाना जाए तो मानव को उसके मानवीय अधिकार से वंचित करते हैं या उसे कर्तव्यों के रपति अनुत्तरदायी अथवा उदासीन बनाते हैं।
सूचना क्रांति के दौर में मानव जीवन
सूचना क्रान्ति के दौर में विश्व में घट रही प्रमुख घटनाओं के मानव के जीवन पर व्यापक प्रभाव पड़ना स्वाभविक है। इन प्रभावों को भी ध्यान मरण रखना आवश्यक है। परस्पर सहयोग एवं समझ, बेहतर प्रबन्धन एवं संसाधनों का संरक्षण, समाज के सभी वर्गों का विकास जैसे अनेक कर्तव्य हो सकते हैं जो विश्व परिदृश्य में मानवाधिकारों के संगत समीचीन होंगे।
मानव के प्रति मानव की संवेदना में आ रही निरंतर कमी को वैशिवक स्तर पर अनुभव करते हुए जब पीड़ित को उसके अधिकार दिलाने की बात की जाती है तो प्रमुख रूप से दो मानवीय वर्ग उभर आते हैं जिसमें एक को शोषक तथा दूसरे को शोषित अथवा के को शक्ति सम्पन्न और दूसरे को शाक्तिहीन को संज्ञा मिल जाती है।
वैशिवक सभ्यता के प्रांरभ में शासक और शासित के मध्य का भेद इतना प्रबल था की अत्याचारों एंव उत्पीड़न का विरोध करने की बात सोची भी नहीं जा सकती थी। शासक वर्ग अपने हित में अथवा मनोरंजन हेतु सामान्य जनता के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार करते थे।
आधुनिक सभ्यता के ध्वजवाहक के दम्भ पालने पश्चिमी देशों में मनुष्यों को दास बनाकर उनकी खरीद-बिक्री ,कोड़े से पीटना और अन्य अमानवीय दंड देना सामान्य बात थी। बाद में इनके द्वारा श्रेष्ठ शासन के खोखले तर्कों का सहारा लेकर उपनिवेशों के सहारे आधिपत्य एवं शोषण की दीर्घकालिक निति अपनाई गई और इसके बहाने सभ्यता एंव संस्कृति के नवीन मानदंडों की स्थापना करते हुए गैर-बराबरी रवन भेदभाव पर आधारित शासन-प्रणालियों का विकास किया गया।
मानवाधिकार और प्रथम विश्व युद्ध
हमारे मत से स्वलाभ के दीर्घकालीन उपायों की खोज में व्यस्त पश्चिमी जगत के देशों की मनोवृत्ति में दृष्टिगोचर परिवर्तन कतिपय जन क्रांतियों की देन है ज्सिमें प्रथम विश्वयुद्ध ने एक निर्णायक भूमिका निभाई। मानव के प्रति वैशिवक संवेदना के स्वर यहीं से मुखरित होते हैं। यद्यपि कि इसकी निरंतर विकसित होगी वैचारिक पृष्ठभूमि में अमेरिकी तथा फ्रांसीसी क्रांतियों को भुलाया नहीं जा सकता।
सन 1763 से लेकर 1783 तक काल अमिरीकी इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इस अवधि में विभिन्न उतार-चढ़ावों एंव द्वंदों के मध्य कुछ अधिकार सामने आये जिनमें जीवन का अधिकार, स्वतन्त्रता का अधिकार, सुख प्राप्ति की अधिकार वाक् एवं प्रेस की स्वतंत्रता, शाति से एकत्र होने की स्वतन्त्रता, याचिका प्रस्तुत करने की स्वतंत्रता का अधिकार प्रमुख तह। इसी क्रम में आर्थिक एवं सामाजी अन्याय के प्रति विद्रोह से उपजी जिन क्रांति का प्रमुख उदाहरण 1789 की फ्रासीसी क्रांति है। 27 अगस्त 1789 कीफ्रासीसी जनता के प्रतिनिधियों ने एक राष्ट्रीय असेम्बली का गठन करके विधिवत कई प्रस्ताव पारित किये। उनकी घोषणा थी कि मनुष्य स्वंतत्र पैदा होता है और स्वतंत्र एन समान अधिकारों के साथ रहता है। राजनैतिक संघ उनके नैसर्गिक और अंसक्रमणीय अधिकारों की रक्षा के लिए है। वैयक्तिक और वैचारिक स्वतंत्रताओं का मानव के लिए बहुत महत्व है। ऐसे विचारों से युक्त मानवाधिकारों का फ्रांसीसी घोषणा पत्र, मानवाधिकार का महत्वपूर्ण आधार बन गया।
प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक परिवर्तन देखने को मिला परन्तु राष्ट्र संघ में सम्मिलित आत्मनिर्णय एंव अल्पसंख्यक वर्गों के अधिकार व्यक्तिगत नहीं थे और प्रत्येक व्यक्ति के अधिकारों की बात अभी वैशिवक पटल पर उतनी स्पष्टता के साथ नहीं उभर सकी थी। मानवाधिकारों के सार्वभौमीकरण का प्रारंभ द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात हो हो सका। यहीं से सभी लोगों को मानवाधिकार और मूल स्वतंत्रताओं के प्रति जागरूक करने का अभियान चला।
सभी की सरक्षा में अपनी सुरक्षा की भावना का विकास एक अन्य विशेषता रही जिसे वास्तव में सर्वे भवन्तु सुखिन, जैसी भारत की आदि विशिष्टता से जुड़ने का जाना-अनजाना प्रयास कहा जा सकता अहि। इस समय मानवाधिकारों के प्रति वैशिवक स्वीकृति को लुईस हैनंकिन नामक विद्धान ने भी स्वीकार किया। 6 फरवरी 1941 को अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने अपने संदेश में चार स्वतंत्रताओं को सम्पूर्ण विश्व के लिए उपलभ कराने की आवश्यकता बताई । ये चार स्वतंत्रताएं थीं वाक् एवं अभिव्यक्ति, उपासना, भय एंव अभावों से स्वतन्त्रता।
मानवाधिकारों के विकास और उसकी पृष्ठभूमि पर यहाँ तक दृष्टिपात करने के उपरान्त उसका अर्थ सहज ही स्पष्ट रूप लेने लगता है। आर.ज. विंसेट का मत है- मानव अधिकार मानव स्वाभाव में निहित है।
ए.ए. सईद ने बताया- मानव अधिकारों का संबंध व्यक्ति की ग्रीक एवं आत्मसात के भाव से है जो व्यक्तिगत पहचान को रेखांकित करता है तथा मानव समाज के आगे बढ़ाता है।
मानवाधिकारों की परिभाषा देते हुए प्लानों तथा ओल्टन ने बताया- मानव प्रजाति के विकास के लिए मुलभुत हैं तथा मानव की गरिमा से सम्बद्ध हैं और उसके पोषण के लिए आवश्यक हैं। मानवाधिकारों सीधे=सीधे ही, इनकी प्राप्ति में जाति, धर्म, लिंग, भाषा, रंग अथवा राष्ट्रीयता बाधक नहीं होती है। मानवाधिकारों को मूलाधिकार, आधारभुर अधिकार, अंतर्निहित अधिकार तथा नैसर्गिक अधिकार आदि के नाम से भी जाना जाता है।
पूर्व में ही स्पष्ट किया जा चुका है कि मानवाधिकारों के प्रति पश्चिमी राष्ट्रों के चिंता द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व तथा उसके दौरान बढ़ने का प्रमुख कारण था- मानवाधिकारों का बहुत बड़े पैमाने पर हनन। संयुक्त संघ चार्टर के अनुच्छेद 68 के अधीन 1946 किया था। इस मानवाधिकार आयोग का प्रथम अधिवेशन 1947 में हुआ था।
10 दिसंबर 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा को अंगीकृत किया। इसकी उद्देशिका में कहा गया- यदि मनुष्य को अत्याचार और उत्पीड़न के विरुद्ध अतिम अस्त्र के रूप विद्रोह का अवलंब लेने के लिए विवश नहीं किया जाना है तो मानव अधिकारों का संरक्षण विधिसम्मत शासन द्वारा किया जाना चाहिए। यह घोषण पत्र 30 अनुच्छेदोन में मूल अधिकारों एंव स्वतंत्रताओं की विस्तृत सूची प्रस्तुत करता है।
मानवाधिकार में व्यक्ति को प्राण, स्वतन्त्रता एवं दैहिक सुरक्षा का अधिकार
प्रत्येक व्यक्ति को प्राण, स्वतन्त्रता एवं दैहिक सुरक्षा का अधिकार है। प्रत्येक व्यक्ति विधि के समक्ष समान है और उसे व्यक्ति के रूप में मान्यता का अधिकार है। उसे सार्वजनिक सुनवाई और लोक विचारण का अधिकार है। दासता से मुक्ति का अधिकार, क्रूर, अपमानजनक या अमानवीय व्यवहारों से मुक्ति का अधिकार, मनमाने ढंग से निरुद्ध या निर्वासिट नहीं करने का अधिकार, एकांत भंग न करने का अधिकार, अन्य देशों में शरण मांगने व लेने का अधिकार, वयस्कों को विवाह व परिवार स्थापित करने का अधिकार, सम्पत्ति का स्वामी बनने का अधिकार इत्यादि इस घोषणा पत्र में सम्मिलित है। इसी में व्यक्ति की मुलभुत स्वतंत्रताओं की चर्चा भी की गई है, जिनमें विचार, अन्त्तःकरण और धर्म की स्वतन्त्रता, अभिमत और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, शांतिपूर्ण सम्मेलन व संगम की स्वतन्त्रता सम्मिलित है।
राजनैतिक अधिकारों में सम्मिलित है देश की सरकार में भाग लेने का अधिकार, अपने देश की लोक सेवाओं में समान पहुंच का अधिकार, आर्थिक एवं सामाजिक अधिकारों के अतंर्गत सामाजिक सुरक्षा का अधिकार, काम का अधिकार, विश्राम व अवकाश केसाथ वेतन सहित आवधिक अवकाशों का अधिकार, बेरोजगारी के विरुद्ध संरक्षण का अधिकार, नियोजन के स्वतंत्र चयन का अधिकार, व्यावसायिक संघ निर्माण का अधिकार, समान कार्य के लिए समान वेतन अधिकार इत्यादि प्रमुख हैं। शिक्षा को भी प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार स्वीकार किया गया है। इसके साथ-साथ मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा में सांस्कृतिक अधिकारों को भी सम्मिलित किया गया है।
मानवाधिकारों की इस सार्वभौम घोषणा का दूसरा चरण उस समय माना गया जबकि इसने संबंधित पक्षों के लिए विधिक रूप से बाध्यकारी स्वरुप ग्रहण किया। 16 दिसंबर 1966 को संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने अपने 21 वें अधिवेशन में दो अंतरराष्ट्रीय प्रसंविदाएं स्वीकार की- नागरिक एवं राजनितिक अधिकारों की प्रसंविदा और आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक अधिकारों की प्रसंविदा।
इसके बाद तीसरा चरण मानवाधिकारों के प्रवर्तन से संबंधित है जोकि क्षेत्रीय, राष्ट्रीय एवं अतर्राष्ट्रीय स्तर में वर्गीकृत किया यगा है। मानवाधिकारों के प्रवर्तन में क्षेत्रवाद का प्रसार द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जबकि राष्ट्रीय स्तर पर इसका प्रवर्तन मुख्य रूप से राज्यों की परस्पर सहमति पर आधारित है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वेच्छा से या नैतिक दबावों के चलते मानवाधिकारों का सम्मान होता है।
मानवाधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय दस्तावेजों में मिले अधिकार का वर्णन
मानवाधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय दस्तावेजों में केवल अधिकार ही नहीं वर्ण कर्तव्यों की भी चर्चा की गई है। मानव पर कर्तव्य आरोपित करते हुए सार्वभौम घोषणा के शब्द हैं- प्रत्येक व्यक्ति के उस समुदाय के प्रति कर्तव्य हैं जिसमें उसके व्यक्तित्व का उन्मुक्त और पूर्ण विकास संभव है। स्पष्टता मानव को मिले अधिकार एवं स्वंतत्रताओं की रक्षा करना मानवाधिकार शिक्षा का लक्ष्य होना चाहिए। मानवाधिकारों के प्रति सम्मान का भाव विकसित किये जाएँ के परिपेक्ष्य में वैशिवक स्तर कर्तव्यों की व्याख्या करते समय प्राचीन भारतीय संन्दर्भ दैव प्रासंगिक रहते हैं। एक उदहरण देखिए तेत्तिरीयोनिषद में कहा गया- सत्यम वद धर्मम चर, मानवाधिकारों की रक्षा के लिए सत्य और धर्म कैसे आवश्यक कर्तव्य बल्कि वैशिवक कर्तव्य बन सकते हैं इस पर चर्चा की जानी चाहिये । वस्तुओं और परिस्तिथियों का विवेकंजन्य तथा अनुभव पोषित ज्ञान ही सत्य स्वरुप है।
चूँकि यह परम सत्य है कि सभी मानव स्वतंत्र एवं समान जन्मा हैं अतएव उनकी समानता एवं स्वतन्त्रता अक्षुण्ण रखना परस्पर कर्तव्य होना चाहिए और स्वाभाविक धर्म भी इसलिए एवं मानवाधिकारों के संरक्षण हेतु धर्माचरण भी कर्तव्य होगा। प्रश्न खड़ा होगा कि कब या किन परिस्थितियों में मानव को स्वतन्त्रता मिलेगी और कब मानव को मानव के समान समझते हुए गैर-बराबरी के भेदभाव से मुक्ति मिलेगी। इसका उत्तर देने के लिए प्रचलित शासन पद्धतियों पर विचार करना होगा। हमारे मत से शासन पद्धतियों पर विचार करना होगा। हमारे मत से शासन प्रणालियों में सबसे कम बुरी प्रणाली लोकान्तात्रिक प्रणाली है।
अतः इसको वर्तमान विश्व के परिस्थितियों के सर्वाधिक उपयुक्त स्वीकार किए जाने में सदेंह नहीं होना चाहिए। के.जी. सैयदेन यह स्वीकार करते अहिं कि वर्तमान एवं भावी जीवन के कर्तव्यों को उचित रूप से समझने तथा पालन करने के लिए इनकी शिक्षा देनी आवश्यक है। यह लोकान्तात्रिक प्रणाली में ही संभव है। ऑटवे और आगे बढ़कर बताते हैं कि कर्तव्य ऐसे हों जो हमें अधिकाधिक संभव बनाएं। कॉलिंगवुड कहते हैं कि किसी व्यक्ति के प्रति सभ्य व्यवहार करने का अर्थ है- उसकी भावनाओं का सम्मान करना, उसमें ऐसा आवेश अथवा ऐसी उत्तेजना पैदा करने से बचना जिससे आत्मसम्मान को ठेस पहूँचती हो। अभिप्राय यह है कि ऐसा कुछ न करना जिससे उसकी स्वतन्त्रता के चेतना को आघात पहुंचता हो और उसे यह आशका होने लगती हो कि उसकी सह शक्ति समाप्त हो जाएगी तथा उसका स्थान आवेश एवं उत्तेजना ले लेगी। कुछ भी हो इससे तो यही लगता है कि मनुष्य के मन, वचन और कर्म में लोकतंत्र को उतार देना आवश्यक हो गया है।
समस्त मानव जाति को उसके अधिकार दिलाने के लिए प्रयत्क्ष अथवा परोक्ष रूप से कर्तव्यों के प्रति बरती जाने वाली उदासीनता का क्रम तोड़ना ही होगा । भारत का संविधान तो अधिकारों के साथ ही कर्तव्यों की सम्यक प्रस्तुति करता है। यदि यह व्यवहार में उतर जाए तो मानव को उसके अधिकार स्वतः मिल जाएंगे। इसलिए आवश्यक है कि अधिकारों की मांग के साथ ही कर्तव्यों के प्रति तत्परता प्रदर्शित की जाए।
वैश्विक स्तर पर कर्तव्यबोध को जागृत करने के लिए व्यक्ति के अस्तित्व की गरिमा का बोध कराया जाए, सर्वे भवन्तु सुखिन की संस्कृति आत्मसात कराई जाए, मानवतावादी विचारों एवं मूल्यों के प्रति समझ विकसित की जाए। साथ ही उन स्थलों या तत्वों को पहचाना जाए तो मानव को उसके मानवीय अधिकारों से वंचित करते हैं यह उसे कर्तव्यों के प्रति अनुत्तरदायी बनाते हैं। सुचना क्रान्ति कीवैश्विक तरंगों ने मानव के जीवन पर व्यापक असर डाला है ज्सिकी अनदेखी नहीं जी जा सकती। इनके प्रभावों को भी ध्यान में रखना आवश्यक है। परस्पर सहयोग एवं समझ, बेहतर प्रबन्धन एवं संसाधनों का सरंक्षण, समाज के सभी वर्गों का विकास जैसे कर्तव्य वैश्विक परिदृश्य में मानवाधिकारों की दशा बदल सकने में सक्षम है।
कहना न होगा कि मानवाधिकारों के संरक्षण एवं संवर्धन के निमित्त (दई वैशिवक स्तर पर) प्रत्येक राष्ट्र में समूह मन, सामूहिक सत्य मार्ग पर चलते हुए सामूहिक कल्याण के कर्मों में प्रवृत्त हो जाएँ तो ने विश्व परिद्रश्य मानव की कल्पना के निकट आने लगेगा और यही परिवर्तन का प्रारंभ बिंदु होगा।
आज आवश्यकता इसी बात की है कि लोकान्तात्रिक मूल्यों एंव मान्यताओं के प्रति प्रतिबद्ध समूहों का निर्माण किया जाए, इसके लिए आवश्यक मनोदशा वाली आधारभूत तैयार की जाए, शैक्षिक प्रक्रिया को इस कार्य में सहायक बनाया जाए, लोगों को लोकतंत्र का वास्तविक अर्थ समझाया जाए अरु इन सबके ऊपर मनुष्य को उसकी मनुष्यता और उसकी क्षमता का बोध कराया जाए।
मानवाधिकारों के प्रति चेतना, सरक्षण एवं विकास के सन्दर्भ में इसके अधिक सकारात्मक कर्तव्यों की विवेचना कर पाना संभवतः संभव नहीं होगा।
How is human right a contemporary global concern ? Discuss, मानव अधिकार कैसे एक समकालीन वैश्विक सरोकार है ? चर्चा करें।
सूचना क्रांति के दौर में मानव जीवन,परिचय,मानवाधिकार और प्रथम विश्व युद्ध,बढ़ते प्रतिस्पर्धा में घटते मानव विचार